अमरीका पर एक और हमला...
अमरीका पर एक और हमला...
ऐसे हुई लादेन से
मुलाकात-4 |
अलकायदा ने अमरीका के खिलाफ दो हमलों की योजना बनाई थी. एक 9/11
को क्रियान्वित हुआ और दूसरा अभी तक नहीं हुआ है. कुल मिलाकर 42
लड़ाकों को अमरीका पर हमले के लिए प्रशिक्षित किया था, जिनमें से
19 का इस्तेमाल 9/11 में हुआ और वे सभी उसी हमले में मारे गए, 23
अभी भी सुरक्षित हैं. |
हामिद मीर
इस्लामाबाद से
अगले तीन सालों में ओसामा बिन लादेन के आसपास यूक्रेनाई वैज्ञानिकों की उपस्थिति
मेरे लिए भ्रम की स्थिति पैदा कर रही थी. मैं यह सोच रहा था कि यदि ओसामा बिन लादेन
सभी अमरीकियों, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं; को मारना
डालना चाहता है तो फिर क्यों दो काले मुसलमान अमरीकी उसके साथ शामिल हो गए हैं.
मैंने इन सवालों का जवाब खोजने की कोशिश की और मैंने इसी लिए अपनी पुस्तक को विलंब
से लाने का फैसला किया.
नवंबर 2001 में, अफगानिस्तान में ओसामा बिन लादेन से मेरे तीसरे साक्षात्कार के
सिर्फ एक दिन पहले, मैं अलकायदा के संचालक युसुफ से काबुल के गुप्त ठिकाने में
मिला, जहां उन्होंने मुझे प्रतीक्षा करने को कहा. युसुफ अमरीका में परमाणु सामग्री
का इस्तेमाल करने के बारे में कह रहा था. उस समय काबुल में गहन अमरीकी बमबारी चल
रही थी. मैंने अपने बचने की सारी उम्मीद छोड़ दी थी. मैंने अपनी बीवी को पत्र लिख
के युद्ध के समय अफगानिस्तान आने की अपनी गलती के लिए माफी मांगी. पर उस पत्र को
पाकिस्तान भेजने का कोई साधन नहीं था.
9/11 यानी
आतंक का खौफनाक चेहरा |
 |
9/11
का हमला आतंक का एक ऐसा चेहरा था, जिसने अमरीका के अति
सुरक्षित होने का भ्रम तोड़ दिया. |
उसके बाद मैंने गौर किया कि युसुफ ने कागज पर कुछ लिख कर एक चेचन लड़ाकू को
दिया. उसने उस लड़ाकू से कहा कि उस संदेश को जल्द से जल्द किसी तरह अमरीका में
मौजूद साथी लड़ाकों को दे दे और यह सुनिश्चित करे कि यदि हमारे कोई भी
महत्वपूर्ण नेता शहीद हो जाते हैं तो वे घबराए नहीं, उन्हें जाफर के निर्देशों
को मानना था.
मैंने उस चेचन लड़ाके से अनुरोध किया कि वे मेरे पत्र को भी अपने साथ ले जाएं और
पाकिस्तान में घुसते ही उसे डाक में डाल दें. पर उसने अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में
मुझसे माफी मांगी क्योंकि वो पाकिस्तान नहीं ईरान जा रहा था.
लादेन के पास परमाणु हथियार
बहरहाल, अगले दिन मैं ओसामा बिन लादेन के सामने बैठा था और यही वक्त था जब ओसामा ने
स्पष्ट रूप से ये स्वीकार किया कि उसके पास अपने को किसी संभावित हमले से बचाने के
लिए परमाणु हथियार हैं. उसके रहस्योद्घाटन के कुछ ही मिनट बाद डॉ. अयमान अल जवाहिरी
ने मुझे बताया कि रुसी अंडरवर्ल्ड से कुछ सौ मिलियन डालर्स में सूटकेस बंद परमाणु
हथियार खरीदे जा सकते हैं.
ओसामा बिन लादेन से मेरी आखिरी मुलाकात के बाद मैं अफगानिस्तान बार बार गया. मैं
ईरान गया, रूस गया और चेचेन्या की पहाड़ियों में भी घूमा. मैं उज्बेकिस्तान,
सीरिया, लेबनान और भारत सिर्फ अल कायदा की परमाणु क्षमताओं के बारे में पता लगाने
गया. मुझे संवर्धित यूरेनियम की तस्करी और मास्को में अलकायदा द्वारा सूटकेस परमाणु
खरीदने के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिली.
मैंने एक चेचन नेता का साक्षात्कार लिया. उसने मुझे बताया कि उन्होंने तीन सूटकेस
परमाणु पहले रूस से जार्जिया और फिर जार्जिया से इटली तस्करी कर पहुँचाया. इतालवी
अंडरवर्ल्ड की मदद से कम से कम दो सूटकेस परमाणु बम अंततः अमरीका में पहुंचा दिए
गए.
कुछ पाकिस्तानी वैज्ञानिक भी अलकायदा के संपर्क में थे पर अलकायदा के वैज्ञानिकों
की एक मिस्र ब्रिगेड ने कुनार के पहाड़ों पर वर्ष 2000 में एक डर्टी बम का परीक्षण
किया. इस में उन्होंने पाकिस्तान की कोई मदद नहीं ली थी. इस परीक्षण में विकिरण की
वजह से एक मिस्र वैज्ञानिक की आँखों की रोशनी चली गई थी.
अमरीका पर दो हमले
यह बहुत महत्वपूर्ण है. अलकायदा ने अमरीका के खिलाफ दो हमलों की योजना बनाई थी. एक
9/11 को क्रियान्वित हुआ और दूसरा अभी तक नहीं हुआ है. कुल मिलाकर 42 लड़ाकों को
अमरीका पर हमले के लिए प्रशिक्षित किया था, जिनमें से 19 का इस्तेमाल 9/11 में हुआ
और वे सभी उसी हमले में मारे गए, 23 अभी भी सुरक्षित हैं.
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ये 23 “मौत के दीवाने” अमरीका में ही कहीं छुपे हैं. ये 23 लोग ही अमरीका के लिए
असली खतरा हैं. यह भी एक तथ्य है कि 8000 से ज्यादा लड़ाकुओं को 1996 से 2001 के
बीच अलकायदा ने अफगानिस्तान में प्रशिक्षण दिया था. उनमें से बहुत से लड़ाकू अमरीका
और कई अन्य यूरोपिय देशों में छुपे हैं. वे कुछ डर्टी बमों से और कुछ सूटकेस परमाणु
बमों से हमला करने की कोशिश कर सकते हैं. खतरा सट्टा है, केवल अमरीका के लिए ही
नहीं बल्कि उन सबके लिए जो उसके सहयोगी हैं, जिनमें पाकिस्तान भी शामिल है.
आत्मघाती आतंक मुस्लिम दुनिया में ईरानी बुद्धिमता की देन हैं. ईरानियों ने
हिजबुल्ला को 80 के शुरुआती दशक में लेबनान में आत्मघाती हमलों का पाठ लिखाया था.
अल कायदा ने हिजबुल्ला से इसे सीखा और इसे इराक से अफगानिस्तान तक फैलाया. मेरे
विचार से इराक, अफगानिस्तान और लेबनान में ईरान की संभवतः जीत ही आतंकवाद के खिलाफ
लड़ाई की सबसे बड़ी हार है.
आज ईरानी तालिबानियों को अफगानिस्तान में मदद कर रहे हैं और लेबनान में हिजबुल्ला
का इस्तेमाल कर रहे हैं. ईरान पर कोई रोक नहीं है और यही आतंक के खिलाफ युद्ध की
सबसे बड़ी पराजय है. ईरानी हर जगह दोहरा खेल खेल रहे हैं और वे इराक में कुछ सरकारी
मंत्रियों को नियंत्रित कर रहे हैं और इराक में अलकायदा का इस्तेमाल कर रहे हैं.
अब वे अफगानिस्तान में नये हिजबुल्लाह को संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं. अब
अफगानिस्तान में तालिबानियों को ईरान द्वारा पैसे और हथियार उपलब्ध कराया जाना कोई
गुप्त बात नहीं रह गई है. कुछ उच्च स्तर के अफगानी सुरक्षा अधिकारियों ने मेरे
सामने स्वीकार किया कि रुसी भी तालिबान का इस्तेमाल अफगानिस्तान में मौजूद नाटो
सेना के खिलाफ कर रहे हैं, परंतु वे ईरान और रूस का पर्दाफाश नहीं कर सकते क्योंकि
अफगानी सरकार के अंदर ही उनकी एक मजबूत लॉबी है.
इस्लाम के खिलाफ लड़ाई
ये एक अलग मिथ्या धारणा है. मुस्लिम देशों में कई लोग ये सोचते हैं कि अमरीका आतंक
के खिलाफ नहीं बल्कि इस्लाम के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है. अमरीकी विरोध दक्षिण एशिया
और मध्य पूर्व की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन गया है. मेरे पास दो उदाहरण हैं.
राष्ट्रपति जार्ज बुश भारत और पाकिस्तान के दौरे पर जब गए थे तो हजारों लोगों ने
उनके भारत में उतरने के दिन ही अमरीका के खिलाफ पदयात्रा (march) किया. वैसी ही
स्थिति लेबनान में हुई.
मैंने हजारों हिजबुल्ला समर्थक शिया और सुन्नी मुसलमानों और ईसाईयों को हाल ही के
लेबनान-इज़राईल युद्ध के बाद बेरुत में कोंडोलिज्ज़ा राईस के खिलाफ चिल्लाते हुए
देखा. अमरीकी स्टेट सचिव ने हिजबुल्ला को आतंकवादी संगठन और इज़राइल को आतंकवाद के
खिलाफ लड़ने वाला सिद्ध करने की बहुत कोशिश की. पर मध्यपूर्व के सर्वाधिक आधुनिक और
उदारपंथी देश लेबनान के निवासी अमरीकी सरकार की सुनने को तैयार नहीं थे. इस युद्ध
ने इस्लामी आतंकवादियों और इसाई वामपंथियों के बीच के रिश्तों को और सुदृढ़ कर
दिया. वेनेजुएला के राष्ट्रपति हुगो शावेज़ ने खुलेआम हिजबुल्ला का समर्थन किया और
कई मुस्लिम देशों में लोकप्रिय हस्ती बन गए. इसका क्या अर्थ है ?
अमरीकी विरोध धार्मिक नहीं राजनीतिक
अंतिम लेबनानी युद्ध ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमरीकी विरोध को बढ़ा दिया और
अब लेबनानी युद्ध के बाद पश्चिमी सैनिकों के खिलाफ आत्मघाती हमलों में अचानक वृद्धि
देख सकते हैं. मुझे कहना चाहिए कि दुनिया में हमारे हिस्से में अमरीकी विरोध की
बढ़ोत्तरी इसलिए नहीं हो रही है क्योंकि अमरीकी सच में बहुत बुरे लोग हैं, मेरा
मानना है कि ज्यादातर अमरीकी लोग बहुत सरल और मासूम लोग हैं, मुस्लिमों के साथ
अमरीका में कई मुस्लिम देशों के मुकाबले में ज्यादा अच्छा बर्ताव होता है.
स्वतंत्रता और लोकतंत्र अमरीकी समाज की वास्तविक शक्ति है. मैं सोचता हूं कि असल
में अमरीका एक छवि की समस्या का सामना कर रहा है.
उदाहरण के तौर पर फिलिस्तीनी व्यक्ति आज भी अमरीकी नागरिकता पा सकते हैं लेकिन उनका
कई अरब देशों में स्वागत नहीं किया जाता. तो फिर क्यों अमरीका फिलिस्तीनियों के बीच
लोकप्रिय नहीं है ? मुझे लगता है कि अमरीकियों को इस सवाल पर गहन सोच विचार करना
होगा.
ब्रिटेन को “लोकतंत्र की जननी” माना जाता है, पर आज कई ब्रिटिश मुस्लिम महिलाएं कई
नए कानूनों का सामना कर रही हैं, जिन्हें वे लोकतांत्रिक नहीं मानती हैं. मुस्लिम
महिलाएं फ्रांस में भी सहज महसूस नहीं कर रही हैं. जहां तक अमरीका का सवाल है,
मुस्लिम महिलाओं को इस्लामी परंपराओं का निर्वारण करने में मुश्किल महसूस नहीं कर
रही हैं. तो फिर क्यों अफगानिस्तान और इराक के मुस्लिम यह मानते हैं कि आतंकवाद के
खिलाफ अमरीकी लड़ाई एक “धर्मयुद्ध” है, एक इसाई लड़ाई इस्लाम के विरुद्घ ? इस
गलतफहमी के लिए कौन जिम्मेदार है ?
आतंकवाद के इस चेहरे से कैसे लड़ा
जा सकता है ...., पढ़ें अगले सप्ताह
01.06.2008, 06.24 (GMT+05:30) पर प्रकाशित