पूर्वोत्तर व कश्मीर में घिरी केंद्र सरकार
विचार
पूर्वोत्तर व
कश्मीर में घिरी केंद्र सरकार
संदीप
पांडेय
पहले तो भारतीय जनता पार्टी असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण की प्रक्रिया को लेकर
बहुत उत्साहित थी क्योंकि उसको लग रहा था इसमें वे सारे लोग चिन्हित हो जाएंगे जो
बंग्लादेश से अवैध तरीके से 24 मार्च, 1971, जिस दिन बंगलादेश का निर्माण हुआ था और
जैसा असम के छात्र आंदोलन का राजीव गांधी के साथ समझौते में तय हुआ था, के बाद भारत
में घुस आए हैं और उन्हें वापस भेजा जा सकेगा.
उनका अनुमान यह था कि ये ज्यादातर मुस्लिम समुदाय से होंगे. किंतु केन्द्र सरकार को
जब यह समझ में आया कि राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण में छूट गए 40.07 लाख लोगों में आधे
से ज्यादा हिन्दू हैं तो उसके पांव फूल गए.
अब वह नागरिकता संशोधन बिल की बात करने लगी है जिसके तहत बंग्लादेश, पाकिस्तान व
अफगानिस्तान से भारत में 31 दिसम्बर, 2014 के पहले आए सभी गैर-मुस्लिम लोगों के लिए
भारत की नागरिकता प्राप्त करना आसान होगा. इस बिल का असम में काफी विरोध हो रहा है.
जन नेता अखिल गोगोई ने नेतृत्व में करीब 70 संगठनों ने सरकार के खिलाफ सीधा मोर्चा
खोल दिया है. भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं को इस बात का अंदाजा नहीं है कि गुजरात,
महाराष्ट्र या हिन्दी भाषी कुछ राज्यों की तरह असम में साम्प्रदायिक भावना इतनी
ज्यादा नहीं है.
असम के लोगों को बड़ा खतरा बंगाली संस्कृति के वर्चस्व का लगता है. असम खुद कई विविध
पृष्ठभूमि की राष्ट्रीयताओं का मिला जुला संगम है. किसी एक खास समुदाय में पैदा
होने से कोई असमिया नहीं बन जाता. किंतु असमी राष्ट्रीयता भी बंगाली या तमिल की तरह
अपने अस्तित्व को बचाए रखने के प्रति बहुत सजग है. असम के लोगों का मुद्दा सिर्फ
1971 के बाद आए लोग हैं, भले ही वे किसी भी धर्म के क्यों न हों.
दूसरी तरफ असम में ही प्रमोद बोड़ो के नेतृत्व में अखिल बोड़ो छात्र संगठन एक पृथक
बोड़ोलैण्ड राज्य की मांग कर रहा है. एक लम्बे संघर्ष के बाद 2003 में असम के चार
जिलों चिरांग, कोकराझार, उदालगिरी व बक्सा को मिलाकर बोड़ोलैण्ड क्षेत्रीय परिषद का
गठन किया गया. असम सरकार के 40 विभागों में से गृह एवं वित्त को छोड़कर शेष सभी इस
परिषद को हस्तांतरित कर दिए गए.
लेकिन अभी भी असम सरकार बोड़ोलैण्ड क्षेत्रीय परिषद को अपने अधीन मानती है क्योंकि
परिषद में परित किसी भी प्रस्ताव को अंततः असम विधान सभा की स्वीकृति भी अनिवार्य
है जो संविधान की छठी अनुसूची की भावना के खिलाफ है जिसके तहत बोड़ोलैण्ड क्षेत्रीय
परिषद का गठन हुआ था.
अभी तक परिषद द्वारा पारित 28 बिलों में से मात्र एक को असम विधान सभा ने मंजूरी दी
है. हलांकि असम की 12 प्रतिशत आबादी उपर्युक्त चार जिलों में रहती है लेकिन असम के
कुल बजट का मात्र 2 प्रतिशत इनके हिस्से में आता है. विद्यालयों में शिक्षकों व
बोड़ो भाषा की किताबों का अभाव है. यही हाल लगभग सभी विभागों का है.
भ्रष्टाचार की वजह से जो भी थोड़ा बहुत लाभ जनता तक पहुंच सकता था उससे वह वंचित रह
जाती है. अतः बोड़ो लोगों का अब मोहभंग हो चुका है और वे मानते हैं कि सिर्फ अलग
राज्य पाकर ही उनकी तरक्की हो पाएगी. हाल में गृह मंत्रालय के साथ बोड़ो नेतृत्व की
बातचीत में ऐसा मालूम हुआ है कि बोड़ोलैण्ड को एक केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा
देने को भारत सरकार तैयार है किंतु बोड़ो लोगों को यह मंजूर नहीं है.
पड़ोस के नागालैण्ड में लोकप्रिय मांग तो स्वायत्ता की है. भारत सरकार के साथ पिछले
21 वर्षों से विभिन्न नागा समूहों की बातचीत चल रही है जो बेनतीजा रही हैं. मोदी
सरकार के साथ बातचीत में कुछ सहमति बनी बताई जाती है. किंतु नागा लोग इस बारे में
बहुत सपष्ट हैं कि उन्हें एक पृथक संविधान व झण्डा चाहिए.
वे भारत के संविधान के तहत नहीं बल्कि भारत के साथ सह-अस्तित्व में रहना चाहते हैं.
नागा लोगों ने अपने को भारत का हिस्सा कभी नहीं माना है. उन्हें तो लगता है कि पहले
दो देशों - भारत व म्यांमार - ने उनका बंटवारा कर लिया और फिर भारत के अंदर उनका
बंटवारा विभिन्न राज्यों जैसे नागालैण्ड, अरूणांचल प्रदेश, मणिपुर, असम व मिजोरम
में हो गया. उनकी अपेक्षा एक पृथक सम्प्रभु पहचान की है.
किंतु कश्मीर के लोगों का पृथक संविधान के साथ अनुभव तो बहुत अच्छा नहीं रहा. भारत
सरकार ने महाराजा हरि सिंह के साथ जो विलय का समझौता किया था उसका खुला उल्लंघन हुआ
है. कश्मीर का अलग झण्डा तो है किंतु उसकी एक स्वायत्त राज्य के झण्डे जैसी गरिमा
नहीं है. अब तो जम्मू व कश्मीर के स्वतंत्र संविधान की प्रति भी मिलना मुश्किल है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 व 35 क में जम्मू व कश्मीर को जो विशेष दर्जा दिया
गया है वह भी अब नाम मात्र का ही रह गया है.
श्रीनगर निवासी प्रसिद्ध साहित्यकार ज़रीफ अहमद ज़रीफ के अनुसार यह कमरे पर एक बंद
ताले की तरह है जिस कमरे में अंदर कुछ भी नहीं. कश्मीर के लोगों को लगता है कि उनके
साथ धोखा हुआ है. भारत सरकार के साथ शुरू में जो समझौता हुआ उसमें तय हुआ था कि
सिवाय ऱक्षा, दूर-संचार व विदेश मामलों के शेष सभी मामलों में स्वायत्ता राज्य
सरकार के पास ही रहेगी. जम्मू व कश्मीर के लोगों की जिस इच्छा अनुसार राज्य का
भविष्य तय होना था उसे तो भुला ही दिया गया है.
कश्मीर के आवाम पर फौव्वारे की तरह निकलते छर्रे वाली बंदूकों का जो इस्तेमाल हो
रहा है वह उनके साथ अमानवीय व्यवहार की चरम सीमा है. शायद भारत सरकार देश के किसी
दूसरे हिस्से में इन बंदूकों का इस्तेमाल एक अराजक भीड़ पर करने की हिम्मत नहीं
करेगी. यह कश्मीर के लागों के साथ सौतेला व्यवहार है. जो लोग, जिसमें बच्चे व औरतें
भी शामिल हैं, सेना पर पत्थर फेंकते हैं उनके ऊपर यह आरोप लगाया जाता है कि
पाकिस्तान उन्हें उकसाने के लिए पैसे देता है. यह बात बड़ी हास्यास्पद है.
यह तो भारत की तरफ से यह कबूल कर लेने वाली बात है कि 70 साल भारत के साथ रहने के
बाद भी कश्मीर के हरेक नागरिक पर पाकिस्तान का प्रभाव है. सवाल यह उठता है कि इस
दौरान हमारी सेना व खुफिया संस्थाएं क्या कर रहे थे? और यदि धर्म के आधार पर
पाकिस्तान ने कश्मीर के लागों को अपने बस में कर लिया है तो भारत सरकार धर्म के
आधार पर नेपाल को लोगों को अपना दृष्टिकोण समझा पाने में असफल क्यों है?
यह खुला सच है कि भारत सरकार नेपाल के संविधान में संशोधन कर भारत पक्षीय मधेशी
लोगों को जो लाभ पहुंचाना चाह रही थी उसके न मानने पर भारत ने नेपाल में होने वाली
आपूर्ति सीमा पर ही रोक ली. इस वजह से नेपाल के लोग भारत से बहुत नाराज हैं.
मोदी सरकार में जम्मू व कश्मीर के हालात पहले से बदतर हुए हैं. जो लोग स्वायत्ता
वाली भूमिका से भारत का हिस्सा बनने वाले विकल्प के ज्यादा नजदीक आ चुके थे वे भी
आज भारत सरकार के वर्चस्व को स्वीकार कर पाने में अक्षम हैं. भारत सरकार ने जम्मू व
कश्मीर के लोगों की भावनाओं को जो ठेस पहुंचाई उसकी क्षतिपूर्ति अल्प काल में बड़ी
मुश्किल दिखाई पड़ती है.
03.01.2019,
12.00 (GMT+05:30) पर प्रकाशित