अंतिम सांसे लेता वामपंथ
विचार
अंतिम सांसे लेता
वामपंथ
प्रीतीश
नंदी
मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं लेकिन, मैं ऐसे राज्य में बड़ा हुआ, जहां कम्युनिस्टों ने
34 साल राज किया और भारत को कुछ बेहतरीन और ईमानदार नेता दिए. हालांकि,
कार्यकर्ताओं के बारे में मैं उतनी निश्चतता से नहीं कह सकता. लेकिन, राजनीति में
नेता और कार्यकर्ता हमेशा एक जैसा व्यवहार नहीं करते.
कॉलेज में मैंने कुछ बहुत ही प्रखर और बुद्धिमान मित्रों को पढ़ाई छोड़कर एक
उद्देश्य के लिए नक्सलबाड़ी में लड़ने जाते देखा. उद्देश्य था ऐसे राष्ट्र में
किसानों को हक दिलाना, जिसे उनकी रत्तीभर परवाह नहीं थी- और आज भी नहीं है.
कल की ही बात है मैंने अपनी खिड़की के बाहर हंसिया व हथौड़े वाले लाल झंडों का सागर
लहराते देखा, जब हजारों किसान मुंबई चले आए. मीलों पैदल चलने के कारण उनके पैरे
जख्मी हो गए, उनमें छाले पड़ गए थे, तो मुझे उन दिनों के लाल झंडे की ताकत याद आई.
इतने दशकों में इन किसानों के लिए कुछ भी नहीं बदला. परिवार बढ़ने से उनकी जमीनें
सिकुड़ती गई है.
आज भी बारिश देर से या अपर्याप्त हो तो उनकी फसलें बर्बाद हो जाती हैं. सिंचाई पर
खर्च की गई अपार राशि हवा में गायब हो गई. कम से कम महाराष्ट्र में तो यही हालत है.
सरकारों से मिले वादे, वादे ही रहे. कर्ज, दरिद्रता और घोर निराशा के कारण किसानों
की आत्महत्या की दर खतरनाक रफ्तार से बढ़ रही है.
मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं फिर चाहे मैंने एक युवक के रूप में प्रशंसा की नज़रों से
कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं को साहसपूर्वक कोलकाता के सांप्रदायिक दंगों के बीच
जाकर तत्काल शांति स्थापित करते देखा है.
वे बहादुर लोग थे और उनका बड़ा सम्मान था. धर्म-जाति उनकी राजनीति के हिस्से नहीं
थे. वे महान विज़नरी नहीं थे. उन्होंने कभी अच्छे दिनों का वादा नहीं किया. किंतु वे
लोगों की सुनते थे और सर्वश्रेष्ठ देने का प्रयास करते थे जो (ईमानदारी से कहें तो)
प्राय: पर्याप्त अच्छा नहीं होता था.
उनके हीरो सारी जगहों से थे. लेनिन, स्टालिन, माओ त्से तुंग, फिदेल कास्त्रों, हो
चि मिन्ह. न तो कास्त्रो और न हो चि मिन्ह कम्युनिस्ट थे. वे तो सिर्फ देशभक्त थे,
जो अपने देश के लिए लड़ रहे थे. लेकिन अमेरिकी दुष्प्रचार ने दिन-रात एक करके उन पर
कम्युनिस्ट का लेबल लगा दिया.
मैं युवा था और मेरे हीरो अलग थे. चे, 1968 के वसंत में पेरिस में छात्रों के
आंदोलन का नेतृत्व करने वाले डेनी द रेड और कोलंबियाई पादरी व मार्क्सवाद और
कैथोलिक आस्था को मिलाने वाले मुक्ति शास्त्र के अग्रदूत कैमिलो टॉरेस.
उनमें से कोई भी सोवियत शैली की तानाशाही सत्ता में भरोसा नहीं करता था. वे अपने
देश के लिए, एक सपने के लिए लड़ रहे थे. उन दिनों कम्युनिज्म कोई सुगठित विचारधारा
नहीं थी, यह तो कुछ करने का आह्वान भर था. इसलिए जब पूर्वी और मध्य यूरोप ने
सोवियतों को बाहर निकालने का फैसला किया तो मुझे खुशी हुई.
9 नवंबर 1989 की रात को पूर्व व पश्चिम जर्मनी को विभाजित करने वाली 96 मील लंबी
बर्लिन की दीवार- जो कम्युनिस्ट व स्वतंत्र यूरोप के बीच दिल तोड़ देने वाले विभाजन
की प्रतीक थी- भरभरागर गिर गई.
पेरिस्त्राइका और ग्लासनोस्त जैसे शब्द राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा बन गए. और जॉन
एफ केनेडी की प्रसिद्ध घोषणा ‘इश बिन आइन बर्लिनेर’ (मैं बर्लिनवासी हूं) 26 साल
बाद नए यूरोप में फिर गूंजने लगी, जहां स्वतंत्रता ही सब कुछ थी. दो साल बाद 25
दिसंबर को क्रेमलिन से सोवियत ध्वज आखिरी बार नीचे लाया गया.
इसके पहले उसी दिन गोर्बाचेव राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे चुके थे. नया रूस जन्म ले
चुका था और कई राष्ट्र अस्तित्व में आए थे. तब पहली बार लेनिन का आसन डावांडोल हुआ.
कीव के अच्छे लोगों ने उन्हें काफी बाद में धरती पर गिराया. सोवियत संघ के पतन के
साथ लाल झंडे का रोमांस यहां भी काफी कम हो गया. पश्चिम बंगाल का गढ़ सबसे पहले
ध्वस्त हुआ.
हालांकि, ममता बनर्जी ने वामपंथ की इमारत ढहाई थी पर वामपंथी कार्यकर्ता अब तृणमूल
के थे. सिर्फ नाम बदला था. केरल अब कम्युनिस्टों का गढ़ था. फिर त्रिपुरा था, जहां
माणिक सरकार 20 साल से मुख्यमंत्री थे. वे हाल ही में चुनाव हार गए और चूंकि उनका
कोई घर नहीं है (और बैंक में 9,720 रुपए होने के कारण घर खरीद नहीं सकते थे) तो वे
अब पत्नी के साथ पार्टी दफ्तर में रहते हैं. उन्हें निर्धनतम मुख्यमंत्री माना गया
है.
ज्योति बसु के बाद आए बुद्धदेब भट्टाचारजी 2011 में ममता बनर्जी से चुनाव हारने के
पहले 11 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे. वे छोटे-छोटे दो कमरों के सरकारी
प्लैट में पत्नी और बेटी के साथ रहते हैं. उन्होंने बैंक खाते में पड़े 5000 रुपए के
साथ चुनाव लड़ा था. कई लोग कम्युनिस्टों के जाने से खुश हैं पर मुझे बुद्धदेब और
माणिक सरकार जैसे लोगों की कमी खलेगी. केवल वामपंथ ही ऐसे लोग दे सकता था :
ईमानदार, किफायती और किसी कांड से अछूते.
एक और कम्युनिस्ट थे, जिनका मैं प्रशंसक था: ज्योति बसु, जो 23 साल मुख्यमंत्री
रहे. विद्वता के कारण उनका बहुत सम्मान था .1996 में वे प्रधानमंत्री होते. राजीव
ने उनका सुझाया था और उन पर आम सहमति थी लेकिन, प्रकाश करात के नेतृत्व वाले पार्टी
सहयोगियों ने उनका समर्थन नहीं किया. भारत ने पहला कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री होने का
मौका गंवा दिया, जो सत्यजीत राय और रविशंकर के साथ उतने ही सहज थे, जितने कार्ल
मार्क्स के साथ.
नहीं, मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं लेकिन, मैं जिन कुछ बेहतरीन कलाकार, कवि, संगीतकार
और विचारकों को जानता था वे किसी न किसी तरह वामपंथ से प्रेरित थे. मुझे बरसों पहले
समर सेन और सुभाष मुखोपाध्याय का अनुवाद करना याद है. वे
अद्भुत कवि थे. मैंने साहिर व कैफी आज़मी तथा फैज़ और सरदार जाफरी का भी अनुवाद
किया था. ये सब बहुत अच्छे संवेदनशील कवि थे, जो अधिक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के
विचार से प्रेरित थे.
मुझे श्री श्री और गद्दार याद आते हैं जिनके गीत लोगों को प्रेरित करते थे. बिमल
राय की ‘दो बीघा जमीन’ में बलराज साहनी याद है? मुझे अमृता प्रीतम याद आती हैं,
जिनकी कविताओं का भी मैंने अनुवाद किया है. और सलील चौधरी, जिनके अमर गीत हेमंत
मुखर्जी ने गाए? कम्युनिज्म अपने अंतिम चरण में है. हर कोई यह जानता है. यह साबित
करने के लिए आपको लेनिन की प्रतिमा गिराने की जरूरत नहीं है. दुनिया आगे बढ़ गई है.
14.03.2018,
19.59 (GMT+05:30) पर प्रकाशित