गरीबी उन्मूलन के नाम पर मज़ाक
विचार
गरीबी उन्मूलन के
नाम पर मज़ाक
पीयूष
पंत
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और विकसित एवं विकासशील देशों में ग़रीबी-उन्मूलन
शब्द का इस्तेमाल और दुरूपयोग समान रूप से किया गया है. विकासशील देशों में गरीबी
मिटाने या उसे कम करने के नाम पर बड़ी तादाद में धन जमा किया गया है, आवंटित किया
गया है, ब्याज पर उठाया गया है और खर्च किया गया है. इसके बावजूद गरीबी के हालात जस
के तस बने हुए हैं.
सन 2011 के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में लगभग 1 अरब लोग अत्यंत गरीबी की अवस्था
में जीवन यापन कर रहे हैं. दुनिया में घोर दरिद्रता की स्थिति में जी रहे इन लोगों
में से एशिया में 55.1 करोड, अफ्रीका में 43.6 करोड़, दक्षिण अमेरिका में 1. 5 करोड़,
उत्तरी अमेरिका में 59 लाख, यूरोप में 3 लाख, ओशिनिया में 50 हजार लोग हैं. दुनिया
में सबसे अधिक गरीब यदि कहीं हैं, तो वह देश भारत है. यहां 30 करोड़ लोग गरीबी रेखा
के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं. इसके बाद नाइजीरिया और चीन आते हैं, जहां गरीबों की
आबादी क्रमशः 10.7 करोड़ और 8.4 करोड़ है. गरीबी का यह आंकड़ा 1.90 डॉलर प्रतिदिन आय
के गरीबी रेखा मानक पर आधारित है.
विश्व बैंक द्वारा “गरीबी का समापन और समृद्धि में साझीदारी” शीर्षक से जारी ग्लोबल
मॉनीटरिंग रिपोर्ट 2014-15 में यह अनुमान लगाया गया था कि 2015 में वैश्विक गरीबी
70 करोड़ (वैश्विक जनसंख्या का 9.6 प्रतिशत) हो सकती है. इस समय विश्व में 1.2 अरब
लोग (22 प्रतिशत) प्रतिदिन 1.25 डॉलर से कम पर गुजर-बसर कर रहे हैं. गरीबी रेखा के
लिए आय की सीमा 2.50 डॉलर प्रतिदिन करने से गरीबों की संख्या, विश्व जनसंख्या का
लगभग आधा (2.7 अरब) हो जाएगी. यह रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की अत्यंत गरीब आबादी
में से 30 प्रतिशत लोग भारत में हैं.
16 अक्टूबर, 2015 को विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर, अंतर्राष्ट्रीय खाद्य संघ
(आइयूएफ) और पाकिस्तान श्रम शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (पीआइएलईआर) ने एक वक्तव्य
जारी किया था. इसमें कहा गया था कि सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के परिणाम
उत्साहजनक नहीं हैं. राष्ट्रों में गरीबी और भूख कम करने की दिशा में 50 प्रतिशत भी
कामयाबी नही मिल सकी है.
इस वक्तव्य के अनुसार, पाकिस्तान जैसे देशों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने
वाले लोगों की तादाद में बढ़ोतरी हुई है. यह बताता है कि ये देश गरीबी और पौष्टिक
आहार जैसे मुद्दों के समाधान की दिशा में आगे बढ़ने में नाकाम रहे हैं.
आइयूएफ ने श्रमिकों, खासतौर से कृषि एवं ग्रामीण श्रमिकों के बारे में गंभीर चिंता
व्यक्त की है. इन समुदायों के पास इतने साधन नहीं हैं कि वे भूख की समस्या से
छुटकारा पा सके. उन्हें पर्याप्त भोजन और पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता है, जबकि यह न
केवल जिंदा रहने के लिए जरूरी है बल्कि उनका बुनियादी अधिकार भी है.
गरीबी उन्मूलन के बारे में लगातार चिल्ला-चिल्ला कर घोषणाएं की जा रही है और खूब
ढिंढोरा पीटा जा रहा है. इसके बावजूद, अधिकांश विकसित और विकासशील देशों के बजट में
गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिए धन आवंटन में बेहद कंजूसी देखी जा सकती है. यहां तक
कि संयुक्त राज्य अमेरिका में गरीबी उन्मूलन योजनाओं के अंतर्गत, अत्यधिक गरीब
आबादी के लिए कुल बजट का एक प्रतिशत से भी कम धन आवंटित किया गया है.
सब जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक द्वारा आर्थिक पुनर्वास और
गरीबी उन्मूलन के नाम पर खूब कर्ज दिया जा रहा है. यह कर्ज सस्ता और आसान किश्तों
पर दिया जा रहा है. इसका भुगतान दीर्घावधि अर्थात् दशकों में किया जा सकता है. आसान
कर्ज और संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम के रूप में मिलने वाला यह कर्ज अब तक इतना
अधिक बढ़ चुका है, जितना पहले कभी नहीं था.
कहने के लिए तो यह आसान, कम ब्याज और दीर्घकालिक अवधि कर्ज है, परंतु यह कर्ज एक
तरह का मकड़जाल है, इस कर्ज के ब्याज पर ब्याज, समय के साथ बढ़ता जाता है. चक्रवृद्धि
ब्याज दर से यह अभूतपूर्व मात्रा में बढ़ चुका है. उदाहरण के लिए जनता की
अर्थव्यवस्था और संबद्ध साक्षरता क्रियान्वयन कार्यक्रम के लिए प्राप्त मूल कर्ज से
ब्याज कई गुना अधिक हो चुका है. दुनिया भर में यही स्थिति है.
गरीबों को विभिन्न सामाजिक सेवाओं के लिए जितना ब्याज अदा करना पड़ता है, उससे कई
गुना अधिक ब्याज उन्हें गरीबी उन्मूलन के नाम पर दिए जा रहे इन सस्ते कर्जों के एवज
में अदा करना पड़ रहा है. यह प्रत्यक्ष उदाहरण है इस यथार्थ का कि गरीबी उन्मूलन के
नाम पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की इन योजनाओं से गरीबी दूर होने की
बजाय सारे पूरी दुनिया में ही बढ़ रही है.
विश्व बैंक द्वारा विभिन्न देशों को दी जा रही सहायता गरीबी को कम करने में नाकाम
हैं. विश्व बैंक के विकास शोध समूह से संबंधित पॉल कॉलिअर और डेविड डॉलर ने अप्रैल
1999 में एक प्रपत्र जारी किया था. इसमें विश्व बैंक के दृष्टिकोण से संबंधित इस
समस्या का उल्लेख है. इसमें कहा गया है, “हालांकि आवंटित सहायता का लक्ष्य, गरीबी
को घटाना है, लेकिन इसके लिए जितनी सहायता दी जानी आवश्यक है, उससे कम दी जा रही
है. इस समय दी जा रही मदद कुछ तो सुधार की नीतियों के प्रति प्रलोभन बढ़ाने के
उद्देश्य से और इसके अतिरिक्त विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से दी जा रही है."
यह उस स्वरूप को बताता है, जिसमें विश्वबैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा
सहायता वहां दी जाती हैं, जहां नीतियों में कमजोरी है या जहां गरीबी की समस्या इतनी
गंभीर नहीं है. गरीबी कम करने की दिशा में सहायता को असरदार बनाने में त जो नीतियां
मददगार होती दिखाई देती हैं, वो सिर्फ वृहद आर्थिक स्तर पर ही नहीं होतीं हैं,
बल्कि इसमें आवेदन संबंधी नीतियां और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के प्रावधान भी
शामिल होते हैं.
सहायता को गरीबी कम करने की नीतियों से हटाकर, सुधारात्मक नीतियों को बढ़ावा देने की
ओर मोड़ने का औचित्य वहां हो सकता है, जहां इस बात का प्रमाण हो कि पूंजी नियोजन का
प्रस्ताव नीतियों को बेहतर बनाने में प्रभावी है. फिर भी, वर्तमान साक्ष्य बताते
हैं कि पूंजी लगा देने भर से नीतियां बेहतर नहीं हो जाती हैं. शायद ऐसा इसलिए है,
क्योंकि आमदनी का प्रभाव कमी को पूरा करने के प्रभाव को संतुलित कर देता है, यह
सुधारों के लिए सरकार की नीतियों की प्रक्रिया को गड़बड़ा देता है.
विश्व बैंक की एक नयी रिपोर्ट भी यह मानती है कि गरीबी कम करने के लिए किए जा रहे
खर्च से कोई खास फायदा नहीं हुआ है. गरीबी उन्मूलन मुहिम पूरी क्षमता से आगे नहीं
बढ़ पायी है. 'बदलते भारत के लिए सामाजिक सुरक्षा' (सोशल प्रोटेक्शन फॉर ए चेंजिंग
इंडिया) नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का
महज 2 फ़ीसद अपने सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम पर खर्च करता है और केंद्र सरकार की
प्रमुख योजनाओं में प्रति परिवार के लिए आवंटित धन राशि, 2004-2005 के आधार पर
ग्रामीण गरीबी रेखा की 40 फ़ीसदी है.
इतने बड़े निवेश का पूरा प्रतिफल गरीब जनता को नहीं मिल पाता है. पिछड़े राज्यों की
प्रशासनिक क्षमता अत्यधिक कम है. योजनाओं को लागू करने में भी अनेक समस्याएं हैं.
जिन राज्यों में गरीबी अधिक है, उन्हें केंद्र के बजट से अधिक धन आवंटित होता है,
लेकिन इस धन का उपयोग करने की उनकी क्षमता बहुत कम है.
यह रिपोर्ट भारत सरकार के अनुरोध पर तैयार की गई थी. यह पहली व्यापक समीक्षा है
जिसमें विश्व बैंक ने भारत के प्रमुख गरीबी विरोधी और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों,
जैसे कि- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण
रोजगार सुरक्षा योजना (मनरेगा), इंदिरा आवास योजना, और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय
वृद्धावस्था पेंशन योजना समेत, विभिन्न केंद्रीय योजनाओं की समीक्षा की है.
प्रमुख अर्थशास्त्री जयती घोष कहती हैं, “यह दिलचस्प है कि गरीबी उन्मलून पर मुख्य
जोर के बावजूद, इसमें गरीबी क्या है और यह कैसे जन्मती है, इस बारे में बहुत ही
सीमित सोच है. यह तरीका गरीबी को निर्धारित करने के लिए सभी आधारभूत आर्थिक
प्रक्रियाओं और वर्गीकृत विशिष्टताओं से कुछ अलग है. इसी तरह, “वर्ग” के बारे में
विचार नहीं किया गया है.
यदि वर्ग धारणा को भी विचार-विमर्श में सम्मिलित किया जाता तो इसे “सामाजिक भेदभाव”
तक सीमित कर छोड़ा नहीं जाता. गरीबों को उनके पास उपलब्ध संसाधनों की कमी के आधार पर
नहीं आंका जाता है, अगर ऐसा किया जाए तो यह निश्चित है कि समाज में वर्ग विशेष के
पास संपत्ति और संसाधनों के सिमटने पर भी विचार करना होगा. लेकिन नकद आय अथवा अन्य
विभिन्न आयामों (जैसे कि कुपोषण, साफ-सफाई एवं आवासीय समस्या, आवश्यक सुविधाओं और
मूलभूत सामाजिक सेवाएं) का अभाव, दरअसल संपत्ति और संसाधनों की कमी को ही जाहिर
करता है.
इसी प्रकार आर्थिक स्थिति या काम या पेशे के आधार पर गरीबों की पहचान नहीं की गई
है. उदाहरण के लिए गरीबो में से वे लोग, जो कि ऐसे रोजगार से संबंधित हैं जिनमें कम
आय होती है, अथवा नियमित और उपयुक्त वेतन वाले रोजगार पा सकने में असमर्थ हैं,
अत्यंत खराब वातावरण और विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए, अपने अस्तित्व के लिए
जद्दोजहद में लगे रहते हैं.”
प्रमुख अर्थशास्त्री प्रोफेसर एमए ओम्मेन भी ऐसा ही मानते हैं. उन्होंने गरीबी के
बारे में विश्वबैंक की अवधारणा का खंडन करते हुए कहा है, “निश्चित तौर पर गरीबी
चिकित्सीय समस्या, व्यक्तिगत दुर्घटना या आचरण या स्वभाव से संबंधित विसंगति नहीं
है. गरीबी जन्मती है- भूमि और अन्य संपत्तियों के अन्यायपूर्ण बटवारे से, बाजार में
भागीदारी के लिए विनिमय के अधिकार के अभाव से, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, रोजगार,
आदि के लिए समान अवसर प्रदान कर सकने की असफलता से. दूसरे शब्दों में गरीबी का इससे
ताल्लुक है कि विकास का कौन सा रूप आप चुनते हैं और वह इस विकास की प्रक्रिया की ही
देन है.”
इसीलिए सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य भी गरीबी को प्रभावी रूप में कम कर सकने में
नाकामयाब रहे. अतएव, वैश्विक गरीबी की समस्या का निराकरण करने के लिए इसके लिए
अपनायी गई रणनीति पर पुनर्विचार की जरूरत है.
03.04.2016,
16.00 (GMT+05:30) पर प्रकाशित