नेपाल पर भारत की चुप्पी
विचार
नेपाल पर भारत की
चुप्पी
योगेंद्र
यादव
भारत सरकार नेपाल में चतुराई दिखाना चाहती है या समझदारी? तात्कालिक विजय हासिल
करना चाहती है या दीर्घकालिक दोस्ती चाहती है? नैतिक प्रभाव चाहती है या राजनीतिक
दबदबा? ये सवाल संसद में कई दिन बाद हुई एक संजीदा और गहरी चर्चा में उठे. राज्यसभा
में नेपाल के संकट पर चर्चा थी. विपक्ष से कई दिग्गज बोल रहे थे, सरकार की नेपाल
नीति पर प्रश्न उठा रहे थे. जवाब में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भाषण अच्छा
दिया.
एक विदेश मंत्री की नपी-तुली भाषा में भारत-नेपाल संबंध की बेहतरी की दुहाई दी.
नेपाल के संकट के बारे में अपनी पीड़ा दर्शाई और इस घड़ी में नेपाल की जनता की मदद
करने की तत्परता जाहिर की. नेपाल के संवैधानिक सवाल को उनका आंतरिक मामला बताया
लेकिन साथ ही साथ उनके आंतरिक मामले में असाधारण दिलचस्पी दिखाई.
यह इशारा भी कर दिया कि मधेशियों की मांग जायज है. नेपाल के नेता अपने किए की सजा
भुगत रहे हैं. सीमा पर चल रहे गतिरोध से अपने हाथ झाड़ लिए. उन्होंने कहा कि
सीमाबंदी तो मधेशी कर हैं, हम क्या कर सकते हैं? लगे हाथ कांग्रेस को याद दिला दिया
की राजीव गांधी ने भी डेढ़ साल तक नेपाल की सीमाबंदी की थी.
इशारा साफ था कि अब हम वही हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं तो आप परेशान क्यों हैं?
भाषण में सबकुछ था- वाकपटुता, तंज, बेचारगी और आक्रामकता का मिश्रण. वर्तमान और
इतिहास के तथ्य थे. बस एक चीज नहीं थी तो वह थी साफगोई.
विदेश मंत्री आधे घंटे तक बोलीं लेकिन यह नहीं बताया कि उनकी सरकार करने क्या जा
रही है? उनकी इस चुप्पी में रंग भरने के लिए आपको उनके इशारों को समझना होगा. सरकार
समर्थकों के तर्कों को पढऩा होगा और सरकार के हर छोटे-बड़े कदम को बारीकी से नापना
होगा. बिना मुंह से बोले भारत सरकार कह रही है कि उसे नेपाल का नया संविधान मंजूर
नहीं है.
यह बता रही है कि हमारे ही पिछवाड़े में हमारी मंजूरी के बिना इस संविधान को लागू
होने नहीं दिया जाएगा. नेपाल के सत्ता समीकरण में मधेशियों को बेहतर हिस्सा देना
होगा. अगर काठमांडू का नेतृत्व हमारी बात नहीं सुनता तो हमें बांह मरोडऩा भी आता
है. हम कोई अमरीका की तरह अपनी ताकत नहीं दिखाएंगे, हम थोड़े ही न कहेंगे कि
सीमाबंदी के पीछे हमारा हाथ है. लेकिन समझने वाले समझ जायेंगे.
इसमे कोई शक नहीं कि मधेशियों की मांग काफी हद तक न्यायसंगत है. मधेश यानी नेपाल की
पहाडिय़ों और बिहार-उत्तरप्रदेश के मैदान के बीच पडऩे वाला तराई का इलाका या मध्य
देश. सिर्फ 50 किलोमीटर चौड़ी इस पट्टी में नेपाल की आधी आबादी बसती है. नेपाल का
सबसे पिछड़ा, गरीब और उपेक्षित इलाका है मधेश.
जाहिर है मधेश निवासियों को लगता है कि इस उपेक्षा के पीछे जातीय दुराग्रह है.
नेपाल की सत्ता पहाड़ी ब्राह्मण-क्षत्रिय और नेवाड़ी लोगों के हाथ रही है जबकि मधेश
में भारतीय मूल के मैथिल, भोजपुरी और अवधी बोलने वाले पिछड़े और दलित समाज का
प्रभुत्व है. नेपाल के सत्ताधारियों ने मधेशियों के साथ भेदभाव किया है.
नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना और संविधान निर्माण मधेशियों के लिए एक नई आशा लेकर
आया था. उन्हें दोनों लोकतांत्रिक चुनावों में सत्ता का स्वाद चखने को मिला और उनके
प्रतिनिधि सर्वोच्च पदों पर आसीन हुए.
लोकतंत्र के इस नतीजे को देखकर सत्तारूढ़ पहाड़ी वर्ग आशंकित हो गया. उसे डर लगा कि
मधेशियों की जनसंख्या बढ़ती जाएगी और एक दिन वो अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो
जाएंगे. इसलिए नए संविधान का फायदा उठाकर पहाड़ी नेताओं ने जनसंख्या के तर्क को
दबाते हुए संसद में अपने बहुमत को सुनिश्चित कर लिया.
दोनों पक्षों की चिंता वाजिब थी. ऐसे में जरूरत थी कि दूरगामी सोच और बड़े मन से
दोनों पक्ष एक समझौता कर लेते. पहाड़ी नेताओं ने छोटा मन दिखाया तो मधेशी नेताओं ने
आर-पार की लड़ाई छेड़ दी. सरकार ने मधेशी आंदोलन का दमन किया और मानवाधिकारों का
खुल्लमखुल्ला हनन किया. इस पर मधेशियों ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हुए
भारत-नेपाल सीमा को बंद कर दिया.
चाहे-अनचाहे भारत सरकार इस युद्ध में एक पक्ष बन गई है. दिल्ली के हुक्मरान नाराज
हैं कि काठमांडू के नेताओं ने भारत सरकार की रजामंदी के बिना संविधान पास क्यों कर
दिया. इसलिए अब भारत सरकार मधेशियों के साथ खड़ी है. हर कोई जानता है कि सीमाबंदी
भारत सरकार की शह पर नहीं तो कम से कम उसकी सहमति से हो रही है.
पूरे नेपाल में त्राहि-त्राहि मची है. पेट्रोल, गैस और दवाइयों का संकट हो गया है.
भारत सरकार कह रही है कि इस सीमाबंदी से उसका कोई लेना-देना नहीं है लेकिन काठमांडू
में इसे मानने वाला कोई नहीं है. एक बार फिर नेपाल के भीतर भारत संदिग्ध भूमिका में
है. सदियों पुराना यह अनूठा संबंध खतरे में है.
भारत सरकार मानवाधिकार और लोकतंत्र की दुहाई दे रही है. लेकिन सच ये है कि इन
सवालों पर भारत की विदेश नीति बहुत कमजोर रही है. भारतीय उपमहाद्वीप में हमारा हर
पड़ोसी कमोबेश अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करता रहा है.
पाकिस्तान में हिन्दुओं, ईसाइयों और अहमदियों के साथ भेदभाव है तो बांग्लादेश में
हिंदुओं और चकमा लोगो के साथ, श्रीलंका ने तमिल अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार किया
तो म्यांमार ने गैर-बर्मी जनजातियों के साथ. दिक्कत ये है की भारत सरकार ने इस
मामले पर कभी तो मुखर होकर बोला, कभी चुप्पी साध ली. म्यांमार के सैनिक शासकों से
सांठगांठ करने वाली सरकार अब नेपाल में लोकतंत्र की दुहाई दे तो किसको यकीन होगा?
श्रीलंका में तमिल नरसंहार के वक्त चुप्पी साधने वाला देश नेपाल में उससे कहीं छोटी
घटना पर विचलित हो तो उसमे कुछ खेल तो नजर आएगा. खुद अपने देश में कश्मीर और
नगालैंड पर दुनिया की चुप्पी चाहने वाली भारत सरकार मधेश के सवाल पर किस मुंह से
बोल रही है? जिस देश में सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को संसद में अपनी आबादी का
आधा प्रतिनिधित्व मिलता हो, वो पड़ोसियों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व का उपदेश कैसे
देगा?
यह सवाल सिर्फ मोदी सरकार की विदेश नीति के नहीं हैं. ये भारत की विदेश नीति के
सवाल हैं. अगर भारत सरकार ऐसे में एक सुसंगत नीति नहीं अपनाएगी तो नेपाल और बाकी
दुनिया को यही लगेगा की भारत अपने पड़ोस में धौंसपट्टी कर रहा है.
आज भारत सरकार नेपाल के नेतृत्व को झुकाने में सफल हो सकती है, लेकिन इसके
दीर्घकालिक परिणाम बहुत बुरे होंगे. ऐसे में भारत सरकार के पास एक ही ईमानदार
रास्ता है कि वह इस खेल से अलग हो जाए. भारत-नेपाल सीमा को खुलवाए. चूंकि भारत
सरकार चाहे तो सीमाबंदी खत्म हो सकती है. या कम से कम नेपाल को इतना भरोसा तो दिलाए
कि सीमाबंदी खत्म करने के लिए वह जो कर सकती है, वह कर रही है.
पहाड़ी नेताओं और मधेशियों की मध्यस्थता का काम भारत के बस का नहीं है. या तो इसे
नेपाल की आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर छोड़ दिया जाए. या फिर इसे वह भारतीय
समूह करें जो कोइराला-जयप्रकाश की परंपरा में भारत-नेपाल मैत्री के वारिस हैं.
12.14.2015,
11.53 (GMT+05:30) पर प्रकाशित