मोदी, अमेरिका और खेती के सवाल
विचार
मोदी, अमेरिका और
खेती के सवाल
देविंदर
शर्मा
अमरीका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने किसानों के हितों की
सुरक्षा की गरज से विश्व व्यापार संगठन के फैसले पर भारत के कड़े रुख को लेकर तमाम
सवालों की झड़ी का सामना करना पड़ सकता है. भारत ने डब्ल्यूटीओ के करार को तब तक
मानने से इनकार कर दिया है, जब तक कि भारतीय किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिए
जाने संबंधी बेचैन कर देने वाले विवाद का कोई स्थायी समाधान नहीं कर दिया जाता.
अनेक अमेरिकी कृषि समूह इससे पूर्व अमेरिकन ट्रेड रिप्रेंजेंटेटिव माइकल फ्रोमैन के
साथ ही अमेरिकी कृषि मंत्री थॉमस विलजेक को लिख चुके हैं. इस बात का विरोध करते हुए
कि मूल्य समर्थन कार्यक्रमों को खाद्य सहायता के साथ क्यों जोड़ा जा रहा है. विधिवत
लाए गए घरेलू खाद्य सहायता कार्यक्रमों में कोई नुक्स नहीं पाए जाने के बावजूद तीस
खाद्य उत्पाद निर्यात समूहों ने ‘मू्ल्य समर्थन कार्यक्रमों को लेकर चिंता जताई है.
इन कार्यक्रमों को गरीबों की भूख का शमन करने से ज्यादा किसानों की आय और कृषि
उत्पादन बढ़ाने वाला माना जाता रहा है.’
इन कृषि उत्पाद निर्यात समूहों, जिन्हें प्रति वर्ष भारी संघीय सहायता मिलती है, ने
मौजूदा तौरत रीकों में किसी प्रकार की छूट, भले ही वह अस्थायी आधार पर हो, दिए जाने
पर सवाल किया है. उनका कहना है कि अगर ऐसा होता है, तो ज्यादा सब्सिडी देनी होगी
तथा इससे अमरीका के व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंचेगा.
सीधे शब्दों में कहें तो हरित क्रांति के 47 वर्षो के उपरांत भारत को विश्व व्यापार
संगठन द्वारा निर्देश दिया जा रहा है कि अपनी खाद्यान्न खरीद पण्राली को खत्म कर दे
जिसे उसने बीते चार दशकों से बड़े जतन से सहेजा हुआ है. इस दोषपूर्ण कदम के खासे
गंभीर परिणाम निकलेंगे. न केवल कड़ी मेहनत से हासिल भारत की खाद्य सुरक्षा पद्धति
तहस नहस हो जाएगी बल्कि कोई छह मिलियन किसानों की आजीविका पर भी बन आएगी. इनमें से
80 प्रतिशत तो ऐसे हैं, जिन्हें छोटे और सीमांत किसानों में शुमार किया जाता है.
भारत, जो अरसे तक आयात के खाद्यान्न पर निर्भर रहा, ने वर्षो के कड़े श्रम से
खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल की है.
यह ऐतिहासिक उपलब्धि उसे हासिल हो सकी तो केवल दो रणनीतियां अपनाने के बल पर. पहली
थी, ‘भूख को परे झटकने की कोशिश’. इसके तहत किसानों को उपज का सुनिश्चित मू्ल्य
समर्थन मुहैया कराया गया. और दूसरी रणनीति रही, खाद्यान्न खरीद पण्राली की शुरुआत.
इससे उपज को बाजार मिलना सुनिश्चित हो सका. इसी के साथ यह भी सुनिश्चित किया गया कि
खाद्यान्नों को कमी वाले इलाकों के गरीबों तक भी पहुंचाया जाए. इसके लिए गल्ले की
दुकानों के संजाल की मदद ली गई.
किसानों को समर्थन मूल्य या कृषि पर करार में लागू होने वाले 10 प्रतिशत के स्तर पर
ही इसे रखने संबंधी प्रयास किसानों को बाजार की अनिश्चितता के हवाले रख छोड़ेगा.
चूंकि भारतीय किसान प्रत्यक्ष आय समर्थन (जैसा कि अमरीका/यूरोपीय संघ में पाते हैं)
नहीं पाते इसलिए इस प्रकार का कदम ही लाखों लोगों की आजीविका पर कड़ा प्रहार होगा.
किसान खेती-किसानी छोड़ देने को विवश होंगे. उनका शहरों की ओर पलायन शुरू हो जाएगा.
पहले ही खेती कोई फायदे का सौदा नहीं है. बीते 15 वर्षो में तीन लाख से ज्यादा
किसान खेती से गुजर-बसर न हो पाने के कारण आत्महत्या कर चुके हैं. न्यूनतम समर्थन
मूल्य है जरूरी महात्मा फुले कृषि विविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन से स्पष्ट हो
जाता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों की आजीविका के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है.
अध्ययन के मुताबिक, 1996 और 2013 के बीच महाराष्ट्र में किसानों को सूर्यमुखी, हरे
चने, ज्वार और गेहूं के मामले में उत्पादन लागत से 35 से 55 प्रतिशत कम मूल्य दिया
गया. इसी प्रकार पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने केंद्र तथा राज्य सरकारों को
नोटिस जारी करके जानना चाहा कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मू्ल्य क्यों नहीं दिया
जा रहा.
जैसा कि विश्व व्यापार संगठन ने तौर-तरीका बनाया है, उसके मुताबिक, करार के
अनुच्छेद 6.4 (ब) में व्यवस्था की गई है कि ज्यादातर विकासशील सदस्य देशों (चीन को
छोड़कर जहां यह 8.5 प्रतिशत रखा गया है) में कुल समर्थन कुल उत्पादन लागत का 10
प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. इसका अर्थ हुआ कि न्यूनतम समर्थन मूल्य उपज के
कुल मू्ल्य के 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. भारत में, विश्व व्यापार
संगठन के आकलन के मुताबिक, धान किसान आधार अवधि 1986-88 के मद्देनजर न्यूनतम समर्थन
मूल्य से 25 प्रतिशत ज्यादा पा रहे हैं. जो अधिकतम 10 प्रतिशत की शर्त रखी गई है,
किसानों के लिए जानलेवा साबित होगी. फिर इसका कोई आर्थिक औचित्य भी तो नहीं है.
देखें कि 1986-88 और 2013 के मध्य चावल और गेहूं के मू्ल्य 300 प्रतिशत से ज्यादा
बढ़े और इसी अवधि के दौरान उर्वरकों जैसे आदानों के दाम 480 प्रतिशत (विश्व बैंक
उत्पाद मू्ल्य आंकड़ा) बढ़े.
कहना न होगा कि 1986-88 का आधार वर्ष आज बेमानी हो गया है. पांच वर्षो के लिए भारत
को पीस अनुच्छेद को स्वीकार करने को कहने की बजाय विश्व व्यापार संगठन को अपने 159
सदस्यीय संगठन के स्तर पर ही इस विवादास्पद मुद्दे का कोई स्थायी समाधान निकालना
चाहिए. बदला जाए आधार वर्ष सबसे अच्छा समाधान तो यह होगा कि आधार वर्ष 1986-88 को
बदला जाए. इसे बदल कर थोड़ा और करीब लाया जाए. खासकर 2007 के बाद से तो यह जरूरी हो
गया है, जब नियंतण्र खाद्य संकट के चलते 37 देशों में खाद्य पदार्थो को लेकर दंगे
हो गए थे. लेकिन यह अमरीका/यूरोपीय संघ को मंजूर नहीं है. वे तो भारत को उसके
प्रतिबद्धता से ही डिगाने को आमादा है, जो अपने नये खाद्य सुरक्षा कानून के तहत भूख
से त्रस्त अपनी 67 प्रतिशत गरीब आबादी को बचाए रखने के प्रयास में जुटा है.
बहरहाल, दीवार पर लिखी इबारत बिल्कुल साफ है. विश्व व्यापार संगठन में खाद्य
सुरक्षा नहीं बल्कि तीसरे विश्व की खेती निशाने पर है. भूखे को तो आयात करके भी
खिलाया जा सकता है. अमेरिकी कृषि निर्यात समूह यही तो कहना चाह रहे हैं. तीसरी
दुनिया के किसानों के हाथों में ज्यादा आमदनी दिया जाना उन्हें मंजूर नहीं है.
इसलिए कि इससे तो विकासशील देशों की खेती फायदे का सौदा बन जाएगी. और अमेरिकी
कृषिगत कारोबारी हितों को चोट पहुंचेगी. इसलिए प्रधानमंत्री पर अमरीका की खाद्य
निर्यात लॉबी का जबरदस्त दबाव रहेगा.
28.09.2014,
14.59 (GMT+05:30) पर प्रकाशित