सुदीप ठाकुर की कविता
कविता
सुदीप ठाकुर
कुछ भी अचानक नहीं
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चित्रः डॉक्टर लाल रत्नाकर |
एक
भीड़ अचानक इकट्ठा नहीं होती
वर्षों के अभ्यास से जुटाए जाते हैं लोग
धीरे धीरे किया जाता है उन्हें विचारों से निबद्ध
भीड़ का रास्ता तय करने वाले
भीड़ के सबसे आखिर में होते हैं उत्तेजनाओं पर सवार
वे इतिहास को वहां से देखते हैं
जहां से वर्तमान शुरू होता है
साजिशे उनका सबसे बड़ा हथियार
दो
इतनी साफ साफ शिनाख्त पहले कभी नहीं हुई
कहीं कुछ धुंधला रह ही जाता था
संकोच या लिहाज जैसा कुछ होता था
फिर वह आए और उन्होंने खींच दी बीचों बीच एक गहरी लकीर
यानी अब इस तरफ वे थे
और दूसरी तरफ, वे जो नहीं थे
वह इतनी हड़बड़ी में थे कि
हर फैसला खुद ही कर डालना चाहते थे
फिर एक दिन घोषणा कर दी कि
जो हमारे साथ नहीं हैं राजद्रोही हैं
ठीक इसी वक्त संविधान की जरूरत महसूस हुई
तीन
वे सब कुछ बदल डालना चाहते थे
इतना कि उन्हें पसंद नहीं था
कोई दूसरा रंग भी
वे चाहते थे कि हर कोई
अब खास तरह से ही बैठे
खास तरह से ही उसे चलना चाहिए
खास तरह से ही उसे बोलना चाहिए
वे हर एक की निष्ठा को कठघरे में रख रहे थे
उन्हें पसंद नहीं थी दूसरों की भाषा
वे चाहते थे कि अब वर्णमाला भी बदल दी जाए.
02.03.2016, 13.40 (GMT+05:30) पर प्रकाशित