सिख विरोधी दंगे-पापों का प्रायश्चित
विचार
सिख विरोधी
दंगे-पापों का प्रायश्चित
राम पुनियानी
कांग्रेस नेता सज्जन कुमार ने अंततः दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित अंतिम
तिथि 31 दिसंबर, 2018 को न्यायालय के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. न्यायालय ने उन्हें
1984 के सिक्ख-विरोधी कत्लेआम में भागीदारी का दोषी पाया था.
यह कत्लेआम, भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुआ था. इसकी जांच
के लिए कई आयोग नियुक्त निये गए और अंततः सन 2005 में नानावटी आयोग ने सज्जन कुमार
को दोषी ठहराया.
न्यायमूर्ति मुरलीधर और गोयल ने अपने निर्णय में बिलकुल ठीक कहा कि “विभाजन के बाद
से, सामूहिक हत्यायों के कई दौर हुए हैं, जिनमें मुंबई (1993), गुजरात (2002) और
मुज़फ्फरनगर (2013) शामिल हैं...इन सभी में वर्चस्वशाली राजनैतिक दलों के नेताओं
द्वारा, कानून लागू करने वाले संस्थाओं के सहयोग से, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया
गया. इन सामूहिक अपराधों के दोषियों को राजनैतिक संरक्षण मिला और उन पर न तो मुक़दमे
चलाये गए और ना ही उन्हें सजा मिली.”
सांप्रदायिक हिंसा में इजाफे के लिए, सांप्रदायिक शक्तियों के अलावा, सुस्त
राजनैतिक नेतृत्व भी ज़िम्मेदार है, जिसने या तो इस हिंसा को होने दिया या उसे बढ़ावा
दिया. पूर्वाग्रहग्रस्त पुलिस प्रशासन और न्यायिक प्रणाली की कमजोरियां भी इसके लिए
ज़िम्मेदार हैं. इसके कारण हिंसा को भड़काने वाले नेताओं और सड़कों पर खून-खराबा करने
वाले लम्पट तत्वों का बाल भी बांका न जो सका.
धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध होने वाली हिंसा को मोटे तौर पर दो हिस्सों में
बांटा जा सकता है. पहली है, सिक्ख-विरोधी कत्लेआम जैसी हिंसा जो किसी एक घटना से
भड़कती है और जिसमें असहाय अल्पसंख्यकों को राजनैतिक प्रतिशोध का निशाना बनाया जाता
है. दूसरी है, ईसाईयों और मुसलमानों के खिलाफ निरंतर हिंसा, जो हिन्दू राष्ट्रवादी
एजेंडे का भाग है.
जहाँ सिक्खों के विरुद्ध हिंसा का नेतृत्व कांग्रेस ने किया था, वहीं मुसलमानों और
ईसाईयों के खिलाफ हो रही हिंसा के पीछे हिन्दू सांप्रदायिक संगठन हैं. नस्लवादी
हिंसा पर अनुसन्धान करने वाले अध्येताओं का यह दिलचस्प निष्कर्ष है कि हिंसा भड़काने
वाली राजनैतिक शक्ति को हमेशा इससे चुनावों में लाभ होता है.
सिक्ख कत्लेआम के बाद, दिल्ली में कांग्रेस और मज़बूत बन कर उभरी और मुंबई
(1992-1993) और गुजरात (2002) के बाद, भाजपा. येल विश्वविद्यालय द्वारा किये गए एक
अध्ययन से यह सामने आया है कि हर सांप्रदायिक दंगे के बाद, सम्बंधित इलाके में
भाजपा की चुनावी ताकत बढ़ती आयी है. दिल्ली में सिक्ख विरोधी हिंसा के बाद कांग्रेस
के ताकत बढी, परन्तु धीरे-धीरे वह वहां कमज़ोर हो गयी.
जहाँ तक सिक्ख-विरोधी हिंसा का सम्बन्ध है, इसके लिए केवल कांग्रेस को दोषी ठहराया
जाता है. काफी हद तक यह सही भी है. परन्तु इसका एक दूसरा पक्ष भी है, जिसे बड़ी
होशियारी से परदे के पीछे रखा जा रहा है. और वह है इस त्रासद घटना में संघ और भाजपा
की भागीदारी. दिनांक 2 फरवरी 2002 के अपने अंक में, हिंदुस्तान टाइम्स लिखता है कि
हिंसा में शरीक व्यक्तियों में भाजपा के नेता शामिल हैं.
पायोनियर (11 अप्रैल 1994) के अनुसार, “भाजपा 1984 की हिंसा में शामिल अपने नेताओं
को बचाने का प्रयास कर रही है. न्यूज पोर्टल खबर बार के अनुसार कैप्टिन अमरिंदर
सिंह ने सन् 2014 में बताया था कि सन् 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों में उनकी भूमिका
के लिए भाजपा-आरएसस के 49 नेताओं के विरूद्ध 14 एफआईआर दर्ज की गईं थीं. उन्होंने
भाजपा-आरएसएस के कुछ नेताओं जैसे प्रेम कुमार जैन, प्रीतम सिंह, राम चन्द्र गुप्ता
आदि के नाम भी बताए थे जो दंगों में शामिल थे.
अमरिंदर सिंह ने सुखबीर सिंह बादल से यह सवाल भी पूछा था कि वे इन नेताओं के दंगों
में शामिल होने के बारे में शर्मनाक चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? क्या इसलिए क्योंकि
ये नेता उस पार्टी के सदस्य हैं जिसके साथ उनका गठबंधन है? शिरोमणि अकाली दल के
सुखबीर सिंह बादल के इस दावे के विपरीत कि भाजपा सदस्यों ने सन् 1984 में सिक्खों
की जान बचाने का साहसपूर्ण कार्य किया था, जैन-अग्रवाल समिति की रपट में दिल्ली के
कई प्रमुख आरएसएस कार्यकर्ताओं के नाम थे जो इस नरसंहार में शामिल थे.
जाने-माने आरएसएस विचारक नानाजी देशमुख ने भी इस बारे में चोकानें वाली बात कही थी.
प्रतिपक्ष (25 नवंबर, 1984) में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने कहा ‘सिक्ख विरोधी
हिंसा हिन्दुओं के न्यायोचित आक्रोश का परिणाम थी और सिक्ख समुदाय को इसे खामोशी से
बर्दाश्त करना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा था कि देश की इस आपदा की घड़ी में राजीव
गांधी को पूरा समर्थन दिया जाना चाहिए.‘‘ यह दस्तावेज 5 नवंबर 1984 को जारी किया
गया था जब हिंसा अपने चरम पर थी.
प्रतिपक्ष के संपादक जार्ज फर्नाडीस ने इसे अपनी इस संपादकीय टिप्पणी के साथ
प्रकाशित किया था : ‘‘ लेखक आरएसएस के जानेमाने नीति निर्धारक एवं विचारक हैं.
प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) की हत्या के बाद उन्होंने यह दस्तावेज प्रमुख
राजनीतिज्ञों के बीच वितरित किया था. चूंकि इसका ऐतिहासिक महत्व है इसलिए हमने इसे
प्रकाशित करने का निर्णय इस तथ्य के बावजूद लिया कि यह हमारे साप्ताहिक की नीति के
विपरीत है. यह दस्तावेज इंदिरा कांग्रेस और आरएसएस के बीच बढ़ती निकटता को दर्शाता
है‘‘.
जहां दंगों कांग्रेस की सहभागिता की बार-बार आलोचना की जाती है, जो पूर्णतः उचित भी
है, वहीं आरएस-भाजपा के इस धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के प्रति रवैये के बारे में
ज्यादातर लोगों को जानकारी नहीं है. सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद भाजपा और अकाली
दल का गठबंधन पंजाब में लंबे समय तक सत्ता में रहा.
परंतु सन् 1984 के नरसंहार में आरएसएस की भूमिका के बारे में अकाली दल की चुप्पी
वाकई चिंताजनक है. आरएसएस विचारक का यह लेख, जो हिंसा के लिए सिक्खों को ही
जिम्मेदार ठहराता है, जबकि इंदिराजी के हत्यारे किसी भी तरह से सारे सिक्ख समुदाय
का प्रतिनिधित्व नहीं करते.
सिक्ख विरोधी हिंसा के बाद का सबसे दुःखद पहलू यह है कि इस मामले में अब तक इंसाफ
नहीं हुआ है. हालांकि कांग्रेस के बड़े नेताओं जैसे सोनिया गांधी और डॉ. मनमोहन सिंह
ने सन् 1984 की घटनाओं के लिए गहरा पछतावा और खेद जताया है, किंतु आरएसएस-भाजपा
नेताओं की ओर से समय-समय पर होनी वाली मुस्लिम और ईसाई विरोधी हिंसा को लेकर कोई
दुःख या पीड़ा नहीं दर्शाई गई है.
यह उम्मीद की जा सकती है कि अतीत में हुई सिक्ख विरोधी हिंसा भविष्य में कभी दुहराई
नहीं जाएगी, किंतु मुसलमानों और ईसाईयों के विरूद्ध होने वाली हिंसा लगातार बढ़ रही
है और अधिकाधिक भयावह स्वरूप लेती जा रही है.
यह संतोषप्रद है कि सज्जन कुमार आज जेल में है, जहां उसे कई वर्षों पहले होना चाहिए
था. यह कामना की जानी चाहिए की मुंबई (1992-93), गुजरात (2002), कंधमाल (2008) और
मुजफ्फरनगर (2013) के साथ-साथ अन्य दंगों के दोषियों को भी कानून के मुताबिक दण्ड
मिलेगा और दंगों की योजना बनाने वाले और उन्हें अमली जामा पहनाने वाले उन कायर और
नीच लोगों से हमारा समाज मुक्त हो सकेगा जिन्हें अब तक अपनी करनी की सजा नहीं मिली
है.
04.02.2019,
12.00 (GMT+05:30) पर प्रकाशित